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दंश

मेरी उड़ान
मेरी उड़ान
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मान बैठा गर वो नशा मुझको यह उसकी खता थी,

वो नशा नहीं था मेरा उसकी मृगतृष्णा थी,

वो अनबुझी प्यास जो भटकाती उसे कालांतर से,

आज भी चातक सा व्याकुल वो है,

तकता निरंतर गगन को कभी,

कभी भटकता सेहरा में,

प्यास को दिल में सजोये अपनी,

वो स्नेह और बांह पाश मेरा,

जिसको कहता वो जन्नत कभी,

आज लगती उसे नागिन के दंश जैसी,

मैं तो कल भी थी यहीं जो आज हूँ,

सोचती हूँ वो स्नेह था उसका

या ये ही है नजरिया उसका……………किरण आर्य

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